गुजरात में एक धनवान सेठ के यहाँ पर एक बालक जन्मा। उसका नाम सिधांत रखा। सिधांत को बचपन में बड़े ही लाड़ प्यार से पाला गया। धन की कमी तो थी नहीं इसलिए वह बचपन से ही कुसंगति में पड़ गया। जुआ खेलने की बुरी संगत में वह फंस गया और वह जुआ खेलने में व्यस्त हो गया। उसकी इस लत से उसके माता-पिता बहुत दुखी थे की ऊँचे कुल का लड़का जुआ खेलकर धन लुटा रहा था। आखिर में माता-पिता ने तय किया की सिधांत का विवाह करवा दिया जाये। माता-पिता को विश्वास था की शादी के बाद घर गृहस्थी के बोझ के कारण जुआ खेलने की लत से छुटकारा मिल जायेगा। शादी के बाद भी सिधांत जुआ खेलने की लत को छुड़ा नहीं पाया उसके घर वालों ने और दुसरे रिश्तेदारो ने काफी समझाया मगर सिधांत पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ। नई नवेली दुल्हन घर में अकेली बेठी रहती और सिधांत आधी रात को जुआ खेलकर घर आता था। वधु आधी रात तक अपने पति का इंतज़ार करती और उसके घर आने के बाद उसको खाना खिलाती और खुद खाती थी और कभी तो बिना खाए ही सो जाती थी। वह बहुत ही दुखी थी, लेकिन पति की बुराई करे तो कैसे करे वह संकोच वश चुप ही रहती थी। परिणाम यह हुआ की वधु का चेहरा मुरझाया सा रहने लगा। चिंता ही चिंता में उसका स्वास्थ्य भी दिन-ब-दिन गिरने लगा। सिधांत को इस बात से कोई लेना देना नहीं था।
एक दिन सिधांत की माँ ने बहु को देखा तो सहम गयी उसने प्यार से सर पर हाथ फिराते हुए पूछा की बेटी क्या बात है ? तुम्हारा चेहरा इतना मुरझाया हुआ क्यों है ? क्या तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है ? मुझे बताओ बेटी की क्या दु:ख है ? सास की दुलार और प्यार से बहु की आँखे छलक आई छिपाने के प्रयास के बाद भी आँखों से आंसू छलक ही पड़े फिर भी वह मौन ही रही तो सास ने कहा की बहु जा कर के सो जाओ तबीयत ठीक हो जाएगी। बहु ने सास की आज्ञा मान कर सो गयी। सिधांत की माँ बेटे की प्रतीक्षा में दरवाजे पर बेठ गयी। रात का तीसरा पहर बिता तो सिधांत के आने की आहट सुनाई दी, रोज की तरह चोर की तरह आकर के धीरे से दरवाजा खटखटाया ।
सिधांत की माँ गुस्से से उबल रही थी उसने सिधांत को दुत्कारा रात के चौथे पहर में इधर-उधर भटकने वाला कौन है ? मैं तुम्हारा बेटा हुं माँ! दरवाजा खोलो, माँ से विनती करते हुए धीरे से उसने कहा। माँ ने कहा की नहीं-नहीं मर्यादा का उलंघन करने वालो के लिए इस घर में कोई स्थान नहीं है। दरवाजा नहीं खुलेगा माँ ने साफ-साफ कह दिया। माँ मुझे ठण्ड लग रही है तुम गुस्सा क्यों कर रही हो? माँ ने कहा की साफ-साफ सुन लो यह दरवाजा आधी रात को तुम्हारे लिए नहीं खुलेगा जिसका दरवाजा आधी रात को खुला मिले वही चले जाओ। यह घर गृहस्थी का है। तुम्हारे लिए यह द्वार बंद है। माँ का स्वर तेज़ था उसमे दृढ़ता झलक रही थी। सिधांत थोड़ी देर रुका रहा जब दरवाजा नहीं खुला तो वह उलटे पाँव वापस चला गया। सिधांत इधर-उधर घूमता रहा मगर किसी का दरवाजा खुला नहीं मिला और माँ के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे की जिसका दरवाजा खुला मिले वही चले जाओ। घूमते-घूमते सिधांत को एक यति उपासरा खुला मिला वह कुछ सोचकर उसमें प्रवेश कर गया। उपासरे में पहुंचकर सिधांत ने देखा की वह बहुत से यति मुनि महाराज विविध प्रकार की ध्यान मुद्रा में तल्लीन थे। उन सभी मुनिगणों के चहरे पर एक विशेष प्रकार का तेज़ और आभा थी और सभी शांत थे। सिधांत ने यति मुनिगणों के चेहरे को देखा तो उसके भी मन में प्रकाश की किरण पैदा हो गयी और सोचने लगा की ये मुनिगण कितने महान है और मैं कितना अधम हुं, व्यसनों ने मेरा जीवन खोखला कर दिया है जन्म देने वाली माँ ने भी आज मुझे दुत्कार दिया है। मेरी तो जिन्दगी ही व्यर्थ है। सिधांत ने मन ही मन में कुछ सोचा और माँ को मन से प्रणाम किया और कहा की आज माँ ने मेरे पर क्रोध करके बहुत बड़ा अहसान किया है। अगर माँ आज क्रोध नहीं करती तो फिर इतने महान मुनियों के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे केसे मिलता? सच ही तो है जैसे गर्म दूध पीने से शरीर का पित नष्ट हो जाता है उसी प्रकार से माँ के क्रोध से आज मेरे मन का मेल नष्ट हो गया है। आज माँ का क्रोध मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ है। जब सिधांत घर नहीं पहुंचा तो उसके पिता उसकी खोज में उपासरे में पहुचे। उन्होंने देखा की पुत्र सिधांत श्रीपुज्य जी महाराज साहेब जी की सेवा में बैठा है और जेसे ही सिधांत की नजऱ अपने पिता पर पड़ी तो उसने विनय पूर्वक कहा की पूज्य पिता श्री जी आप मेरे को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करे। सिधांत की बात सुनकर पिता सहम गए और कहने लगे की बेटा यह क्या कह रहे हो ? तुम्हारी माँ और पत्नी तो घर में बैठे तुम्हारी बाट जो रहे है और रो रहे है आज सुबह जो तुम्हारी माँ ने गुस्सा किया उसको भूल जाओ और उठो यहाँ से घर चलकर अपनी माँ और पत्नी को सांत्वना दो। सिधांत ने कहा की नहीं पिता श्री माँ का क्रोध ही तो मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ है और मैं यहाँ पंहुचा हुं और अब मैं फिर से बुराइयो वाले संसार में प्रवेश नहीं कर पाऊंगा। सिधांत के पिता ने कहा की बेटे जोश और रोष में किया गया फैसला सही नहीं होता है। माँ ने रोष में कहा और तुम जोश में चले गए थे और यह निर्णय कैसे सही हो सकता है ये बात पिता ने सिधांत को समझाई मगर सिधांत अपने फैसले पर ही अडिंग रहा। पिता ने देखा की उनकी बात का सिधांत पर कोई असर नहीं हो रहा है तो उन्होंने दीक्षा की अनुमति दे दी। फिर सिधांत अपने घर के दरवाजे पर आया और माँ व पत्नी से भी दीक्षा की अनुमति मांगी सब ने उनके शुद्ध भाव को देखा तो अनुमति दे दी फिर सिधांत वापस उपाश्रये में आया और श्री पूज्य जी से दीक्षा ग्रहण की और ये ही सिधांत आगे चलकर महान साधक और महायोगी महा तपस्वी यति श्री सिद्धविजय जी बने। माँ का गुस्सा वरदान साबित हुआ।