भगवान के अवतार के तीन कारण होते हैं- पहला अनुग्रह अथवा साधुपरित्राण, दूसरा निग्रह अथवा दुष्कृतकारियों का विनाश और तीसरा धर्मसंस्थापन। जिस प्रकार कोई सम्राट अपने साम्राज्य में सज्जनों को पुरस्कार द्वारा प्रोत्साहित करके और दुर्जनों को तिरस्कार द्वारा निरुत्साहित करके प्रजा में अभ्युदयशील सामंजस्य स्थापित करता है, उसी प्रकार श्रीभगवान भी यथासमय अवतीर्ण होकर यथायोग्य निग्रहानुग्रह प्रदर्शित करते हुए अपनी सृष्टि में धर्म की स्थापना किया करते हैं। समस्त धर्मों का पर्यवसान श्रीभगवत साक्षात्कार में ही है। भगवत साक्षात्कार तभी हो सकता है, जब भगवान में निष्ठा हो। निष्ठा तभी होती है जब अनुराग हो, अनुराग उसी में होता है, जिसकी ओर आकर्षण होगा। अतएव जीवजात को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए ही भगवान अवतार रूप में ऐसी-ऐसी मनमोहिनी क्रीड़ाएं करते हैं कि जिन्हें सुनकर श्रोताओं का मन उनमें बलात् आसक्त हो जाता हैबालक, युवक और वृद्ध, पंडित और मूर्ख, राजा और प्रजा, स्त्री और पुरुष, विषयी और विरागी, सभी का भगवल्लीला श्रवण से उधर आकर्षण होता है, जो परिणाम में प्रपंचातीत परमात्मा तक पहुंचा देता है। ज्ञान-विज्ञान विनाशन काम को गीता में आचार्य रामानुज के अनुसार बुद्धि से भी बलवत्तर बताया गया है। उसी महापाप, महावैरी, दुष्पूर काम को भक्तजन अनायास जीत सकें, इसलिए भगवान अपने अवतार चरित्रों द्वारा मदन-दमन लीलाएं करते हैं। उदाहरण के लिए कोटि-कन्दर्पदर्पहा श्रीकृष्ण की योगमाया द्वारा प्रसाधित रासलीला का दर्शन करके उस समय अनेक देवादि भी भगवन्निष्ठ होकर कृतकृत्य हो गये और अब भी उस परम उज्ज्वल लीला का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने वालों के मदनरूपी हृदय रोग का स्वयमेव शमन हो जाता है।नित्यविभूति से लीलाविभूति में श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि रूपों में श्रीभगवान का अवतार आगम ग्रंथों में विभव कहलाता है। श्रीमत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम (जामदग्न्य), राम (दाशरथि), कृष्ण, बुद्ध और कल्कि, ये दस अवतार प्रसिद्ध हैं।श्रीवराह, सनकादि, नारद, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, यज्ञ, ऋषभ, पृथु, मत्स्य, कूर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, नृसिंह, वामन, परशुराम, वेदव्यास, राम, बलराम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि- ये 22 अवतार कहलाते हैं। हंस और हृयग्रीव की संख्या मिलाने से यह 24 होते हैं। आगम ग्रंथों में अन्यान्य अवतारों के भी नाम उपलब्ध होते हैं।विभव के दो भेद हैं- स्वरूपावतार और आवेशावतार। जब श्रीभगवान स्वरूप में अर्थात् स्वयं ही अवतीर्ण होते हैं, तब उनका वह रूप स्वरूपावतार कहलाता है, जैसे दाशरथि श्रीराम, किंतु जब किसी जीव विशेष में परमात्मा की शक्ति का आवेश होता है, तब उसे आवेशावतार कहते हैं, जैसे जामदग्न्य राम।
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