संसद और विधान सभाओं में पैठ बना चुके दागी नेताओं के चंगुल से विधायिका को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने गत वर्ष जुलाई में अहम फैसला दिया था। इसमें किसी भी अदालत से आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए नेताओं को चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य ठहराया। इतना ही नहीं अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून की उस धारा को भी असंवैधानिक ठहराया जो उच्च अदालतों में अपील लंबित होने तक निचली अदालत में दोषी पाए गए सांसदों और विधायकों की सदस्यता बने रहने की छूट देती है।इस फैसले को बेअसर बनाने के लिए दागी नेताओं ने निचली अदालतों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने खिलाफ चल रहे मामलों को लंबित कराने का तरीका अपनाना शुरु कर दिया था। सामाजिक संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फांउडेशन की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश देते हुए कहा कि निचली अदालतों को दागी सांसद विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले एक साल में निपटाने होंगे। अदालत ने इसके लिए मामले की रोजाना सुनवाई करने का तरीका सुझाया। मजे की बात यह भी है कि फैसले में अदालत ने दागी सांसद और विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामलों में भ्रष्टाचार के मामलों को भी शामिल किया है।
अब क्या होगा: सुप्रीम कोर्ट के गत वर्ष जुलाई 2013 और अब के फैसले के बाद ऐसे सांसद और विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाएगी जिन्हें भ्रष्टाचार सहित ऐसे आपराधिक मामले में अदालत द्वारा दोषी ठहरा दिया गया हो जिसके लिए दो साल या इससे अधिक सजा का प्रावधान हो। निचली अदालतों को अब ऐसे मामलों में आरोप पत्र दाखिल होने के एक साल के भीतर ही फैसला सुनना होगा। इसके लिए अदालतों को ऐसे मामलों की रोजाना सुनवाई करनी होगी। अदालत ने कहा कि अगर किसी कारणवश सुनवाई में एक साल से अधिक समय लगता है तो संबद्ध जज को इसका लिखित कारण अपने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को बताना होगा।
नहीं लड़ सकते लोकसभा चुनाव: विधि आयोग की रिपोर्ट पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसला स्वागत योग्य है। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया को लंबित करने का अभी भी एक दरवाजा संदिग्ध नेताओं लिए बाकी बचा है। यह आरोप पत्र दाखिल होने से जुड़ा है। दरअसल कानूनी प्रक्रिया के तहत अदालत में किसी भी आपराधिक मामले में वादी पुलिस होती है और प्रतिवादी वह पक्षकार होता है जिसके खिलाफ आपराधिक आरोप लगाया गया है। मुकदमा शुरू किए जाने से पहले पुलिस को अदालत में प्रतिवादी के खिलाफ लगाए गए आरोपों की वैधता साबित करनी होती है। जब आरोपों की वैधता साबित हो जाती है तभी पुलिस द्वारा आरोप पत्र दाखिल किया जाता है और इस आरोप पत्र पर ही मामले की सुनवाई शुरु होती है।
सवाल बरकरार: तकनीकी तौर पर सुनवाई का यह दूसरा चरण ही वास्तविक ट्रायल माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक साल की जो समय सीमा तय की गई है वह मूलत: दूसरे चरण के लिए है। जबकि आरोपपत्र तय होने तक की प्रक्रिया के लिए सीआरपीसी में कोई समय सीमा नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि निचली अदालतों में समूची प्रक्रिया को प्रभावित कर सकने वाले नेता क्या आरोप तय करने वाले पहले चरण को ही लंबित नहीं करेंगे। जबकि चारा घोटाले से लेकर बोफोर्स घोटाले और मुंबई विस्फोट मामले तक में हमने देखा है कि आरोप पत्र दाखिल होने में ही कई साल लग गए। उम्मीद है कि पूर्ण फैसले में अदालत इसकी समय सीमा भी तय कर देगी।चुनाव सुधार के लिए अदालत की सक्रियता भरे फैसले सिस्टम की सफाई में मददगार तो साबित हो रहे हैं लेकिन इनके असर होने पर सवाल भी कम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की कामयाबी को जांचने के लिए यह देखना होगा कि अगले साल मई 2015 तक तमाम दागी सांसद विधायकों की सदस्यता खत्म होती है या नहीं। दरअसल भारत में 162 मौजूदा सांसद और 1460 विधायक दागी हैं और इनमें से 72 सांसदों के खिलाफ हत्या, अपहरण और रंगदारी जैसे गंभीर मामले चल रहे हैं। देखना होगा कि इस फैसले के एक साल बाद मई 2015 में इनके मुकदमों का फैसला आता है या नहीं। खासकर 72 में से उन 34 सांसदों के खिलाफ अदालती फैसले का इंतजार ज्यादा होगा जो 16वीं लोकसभा के लिए भी ताल ठोंक रहे हैं।
-सांसदों पर दशकों से पेंडिंग हैं मामले: सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा है कि एमपी और एमएलए के खिलाफ क्रिमिनल केसों में चार्ज फ्रेम होने के बाद एक साल के भीतर सुनवाई पूरी हो। ऐसे में अगर मौजूदा लोकसभा पर नजर डाली जाए, तो कुल 543 सदस्यों में 162 के खिलाफ क्रिमिनल केस पेंडिंग हैं और औसतन पेंडेंसी 7 साल है। इनमें दर्जनों केस ऐसे हैं, जो 10 साल या उससे ज्यादा समय से कोर्ट में पेंडिंग हैं। एक मर्डर केस तो बीते 29 साल से लटका हुआ है। असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नैशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है।
76 सांसदों पर गंभीर अपराध:रिपोर्ट के मुताबिक, 2009 में लोकसभा सदस्यों के हलफनामों के आकलन के बाद पता चला कि 162 सांसदों पर क्रिमिनल केस पेंडिंग हैं। इनमें से 76 के खिलाफ गंभीर आरोप हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि इन 76 सांसदों पर हत्या, हत्या का प्रयास, किडनैपिंग और रॉबरी जैसे गंभीर आरोप हैं और केस पेंडिंग हैं।
एक केस 29 साल से पेंडिंग: 2009 तक के आंकड़ों के मुताबिक, सांसदों पर केस लंबित होने का औसत समय 7 साल है। लेकिन मध्य प्रदेश से कांग्रेस के एक सांसद पर हत्या का जो मामला चल रहा है, वह केस 29 साल से पेंडिंग है। इसी तरह, वेस्ट बंगाल से तृणमूल के सांसद पर दंगा और चोरी का केस 28 साल से पेंडिंग है। वहीं यूपी से बीजेपी के एक सांसद पर 25 साल से हत्या का मामला चल रहा है। एसपी के सांसद पर 24 साल से रॉबरी की कोशिश का मामला दर्ज है। टीडीपी के सांसद पर हत्या की कोशिश का केस 23 साल से पेंडिंग है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद के खिलाफ 20 साल से हत्या का केस चल रहा है, जबकि वेस्ट बंगाल से कांग्रेस के एक सांसद के खिलाफ हत्या के प्रयास का केस 20 साल से पेंडिंग है।
क्रिमिनल केस के बावजूद फिर चुने गए 24 सांसद: आंकड़े बताते हैं कि कुल 162 लोकसभा सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की 306 धाराएं लगी हुई हैं। इनमें जेएमएम के सदस्य पर कुल 69 आईपीसी की धाराएं, जबकि बीजेपी सदस्य के खिलाफ 55, एसपी के मेंबरों के खिलाफ 34 व कांग्रेस के सदस्यों के खिलाफ 30 आईपीसी की धाराएं लगी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 24 ऐसे सांसद हैं जिनके खिलाफ 2004 में भी क्रिमिनल केस पेंडिंग थे और उन्हें उनकी पार्टी ने टिकट दिया और वो दोबारा चुने गए।
50 सांसदों पर 10 साल से पेंडिंग केस: पचास सांसदों पर 136 क्रिमिनल केस पेंडिंग हैं। ये पेंडेंसी 10 साल या उससे ज्यादा समय से है। वहीं 30 सांसदों के खिलाफ गंभीर किस्म के चार्ज हैं और इनके खिलाफ कुल 58 केस हैं जो 10 साल या उससे ज्यादा समय से पेंडिंग है। 5 लोकसभा सदस्य ऐसे हैं, जिनके खिलाफ हत्या के मामले 10 साल या उससे ज्यादा समय से पेंडिंग हैं, जबकि 9 सांसदों के खिलाफ हत्या के प्रयास के केस 10 साल से ज्यादा समय से पेंडिंग हैं। वहीं 20 सांसदों के खिलाफ किडनैपिंग का केस 10 साल से ज्यादा समय से पेंडिंग है वहीं 4 सांसदों पर रॉबरी का केस 10 साल से ज्यादा समय से पेंडिंग है।
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