चार वामपंथी दलों- दोनों कम्युनिस्ट पार्टी, क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लॉक के अलावा अब इस गठबंधन में तीन जनता दल- जनता दल यूनाइटेड, जनता दल सेक्युलर और समाजवादी पार्टी भर रह गई है। झारखंड के बाबूलाल मरांडी इस गठबंधन में शामिल रह सकेंगे इस पर संदेह बना हुआ है क्योंकि देशभर में पुराने भाजपाईयों की घर वापसी का दौर चल रहा है। तीसरा मोर्चा अब राजनीतिक क्षितिज में अपनी चमक धूमिल कर चुके वामपंथी दलों और साख खो चुके नीतीश कुमार तथा मुलायम सिंह यादव की बड़ा स्वरूप दिखाने की महत्वाकांक्षा भर का प्रतीक बनकर रह गया है। क्योंकि न तो नीतीश और न ही मुलायम सिंह यादव अपने प्रभाव क्षेत्र में किसी अन्य दल को पैठ बनाने देने के पक्ष में हैं। जिन जयललिता ने तामिलनाडु से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के एक-एक सदस्य को राज्यसभा में चुने जाने में मदद की थी और उनके साथ चुनावी तालमेल की घोषणा भी की है, उन्होंने राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। यही स्थिति मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में बना ली है। वामपंथियों को अकेले पड़ गए नीतीश और हताशा की राजनीति करने पर विवश देवगौड़ा के सौजन्य से बिहार और कर्नाटक में कुछ सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने का अवसर मिल सकता है। इस मोर्चे के गैर कांग्रेस और गैर भाजपा विकल्प होने का दावा किया गया है। यद्यपि इसमें जो दल अभी भी बचे हैं वे सरकार बनाने या समर्थन देने में कभी भाजपा और कभी कांग्रेस के साथ रहे हैं और भविष्य में सरकार बनाने के लिए इन दोनों दलों को देश बचाने के लिए वे अलग शक्ति के रूप में बने रहेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आम आदमी पार्टी के समान ही इस मोर्चे ने भ्रष्टाचार से अधिक खतरनाक सांप्रदायिकता को माना है। जो आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार निवारण की प्रतिबद्धता से जन्मी है उसके नेता अरविंद केजरीवाल का मत है कि भारत के लिए भ्रष्टाचार से अधिक खतरनाक सांप्रदायिकता है, यद्यपि उनके प्रवक्ता आशुतोष का मानना है कि सांप्रदायिकता भ्रष्टाचार से ही जन्मी है। फेडरल फ्रंट उस सेक्युलरिज्म के प्रति प्रतिबद्ध होने का दावा कर रहा है जिसकी अब पोल खुल चुकी है क्योंकि ऐसा दावा करने वाले जाति, संप्रदाय और क्षेत्र में विघटन के हामीकार के रूप में बेनकाब हो चुके हैं। उनका सेक्युलरिज्म मुस्लिम तुष्टीकरण और भारतीयता के प्रति घृणा के रूप में जिस बेशर्मी से मुखरित रहा है उसने सभी प्रकार के भ्रम को मिटा दिया है।
गठजोड़ करने की मजबूरी
दो बातें विरोधाभासी हो रही हैं। बीजेपी का दावा है कि देश में बह रही मोदी की हवा चुनाव के समय सुनामी में बदल जाएगी। लेकिन मोदी की शह पर बिहार में 40 में से 15 सीटें बांटी जा रही हैं। पासवान को सात, उपेंद्र कुशवाहा को तीन और पांच सीटें जदयू या आरजेडी के बागियों को देने की पूरी तैयारी है। महाराष्ट्र में तो राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के साथ अलिखित गठबंधन कर लिया गया है। यह शिव सेना की नाराजगी को समझते हुए भी किया गया है। बिहार और यूपी में पूछा जा रहा है कि जो राज ठाकरे मुंबई में बिहार और यूपी के लोगों को वहां से भगाने की बात करते हैं, उनकी ही पार्टी से समझौता क्यों?लेकिन मोदी को इसकी चिंता नहीं लगती। वह छोटे दलों से समझौता कर इसकी भरपायी करने के फेर में दिखते हैं। यूपी में अपना दल जैसी छोटी पार्टी के साथ भी बीजेपी समझौता कर रही है। पीए संगमा की पार्टी भी सात सीटों के बदले बीजेपी का साथ देने को तैयार है। हरियाणा में आईएनएलडी से समझौते की बात भी सुनाई दे रही है। हालांकि, इसके सबसे बड़े दो नेता ओम प्रकाश चौटाला और अजय चौटाला टीचर भर्ती घोटाले में जेल की सजा काट रहे हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके और भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खा चुके येदियुरप्पा को बीजेपी टिकट दे ही चुकी है। खनन माफिया कहलाने वाले बेल्लारी के श्रीरामुलू भी साथ आ गए होते, अगर सुषमा स्वराज ने विरोध नहीं किया होता। अगर सचमुच नरेंद्र मोदी की हवा चल रही है, तो फिर यह सब क्यों? मोदी को भी पता है कि उम्मीदवारों के चयन के बाद जमीनी हकीकत में कुछ बदलाव आता है। लोग भले ही मोदी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हों, लेकिन अपने इलाके से खड़े होने वाले उम्मीदवार को देखकर भी वे फैसला करते हैं। अभी तक यही लग रहा है कि जहां सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुकाबला है, वहां-वहां बीजेपी थोक के भाव में सीट निकलाने की क्षमता रखती है। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ऐसे ही कुछ राज्य हैं। लेकिन जहां सामने गैर-कांग्रेसी पार्टी है, वहां वहां उन्हें मुकाबला दिख रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव ने यह तो साबित कर दिया था।
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