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चरण स्पर्श करने की प्रथा हमारे देश में आनादी काल से चली आ रही है। गुरुजनों और अग्रजों का चरण स्पर्श एक सामान्य शिष्टाचार था। गुरु की चरणरज अत्यंत श्रद्धा व् सम्मान तथा भक्ति के साथ धारण की जाती थी। महा कवि तुलसी दास जी ने तो राम चरित मानस की रचना ही गुरुपद की वंदना से प्रारंभ की है।

|| बन्देउ गुरु पद पदुम परागा ||

|| सुरुचि सुबास सरस अनुरागा || 

श्री राम के वनवास चले जाने पर उनकी चरण पादुका को प्रतिष्ठित कर् शासन का कार्य संचालन हुआ। जब राम जी पिता की आज्ञा पर चौदह वर्ष के लिए वनवास चले गए। तब भरत जी एक दिन उन्हें वापस लेने के लिए जाते हैं परन्तु श्री रामचंद्र जी वापस नहीं लौटे। तब असफल होने पर भरत जी श्री राम की चरण पादुका लेकर ही संतोष कर लेते है।

रामचरितमानस साक्षी है-

|| प्रभु करि कृपा पावरी दीन्ही ||

|| सदर भरत सीस धरी लीन्ही || 

राम के परम सेवक हनुमान जी जब उनसे पहली बार मिलते है तो उन्होंने श्री राम के पद्कंजक को ही पकड़ा है।

 || प्रभु पहिचानी गहेउ कपि चरना || 

जब श्री राम ने इसका कारण पूछा तो वह कहने लगे

 || रावरे दोष न पायन को पग धूरि को भूरि प्रभाऊ महा है ॥ 

महापुरुषों की चरण धूलि उत्तम और चमत्कारिणी होती है। विश्वामित्र जी के साथ वन जाते हुए राम व् लक्षमण ने जब मार्ग में एक शिला को देखकर उसके विषय में पूछा तब विश्वामित्र जी ने कहा

|| चरण कमल राज चाहते ||

|| कृपा जरहू रघुबीर || 

रावन के दरबार में जब अंगद अपना पैर जमा देते है और उसे उठाने के लिए जब स्वयं रावन आता है तब उसे रोकते हुए तुलसीदास जी ने लिखा है

 || मम पद गहे न तोर उबारा || 

उस समय ऐसे अवसर भी आए जब बहिष्कृत करने बार बार भागने के बाद भी लोग चरण छूने को आतुर रहते थे। जैसे रावन विभीषण को लात मारता है परन्तु विभीषण बार बार उसके पैर ही पकड़ते रहे। प्रमाण स्वरुप देखिए

|| अस कहि किन्हेसि चरण प्रहरा ||

|| अनुज गहे पद बारहि बारा ||

इसी प्रकार हम देखते है कि चरण स्पर्श और चरण सेवा का अनादि काल से आज तक अपना एक अलग महत्त्व है तथा चरण स्पर्श भारतीय संस्कृति की एक् उत्कृष्ट पहचान है। जिसको हमें कभी नहीं भूलना चाहिए। चरण स्पर्श से शुभ आशीर्वाद स्वतः ही मिल जाता है।

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