प्रार्थना करना लिखे हुए कुछ शब्दों को दोहराना भर नहीं है। प्रार्थना का अर्थ होता है परमात्मा का मनन और उसका अनुभव। जब हम आत्मा अर्थात अपने भीतर अवस्थित आत्म-तत्व से बातचीत करते हैं, तो वह प्रार्थना है क्योंकि पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, हमारा आत्म-तत्व या आत्मा परमात्मा का ही लघु स्वरूप है।
प्रार्थना करने के लिए हमें पवित्र होना पड़ता है। पवित्र होने का अर्थ नहाने-धोने से बिल्कुल नहीं है। पवित्रता आत्म-तत्व की होती है, मन की होती है, हृदय की होती है। जब हमारा आत्म-तत्व स्वयं ही ईश्वर का लघु-स्वरूप है, तो उसे हमें पवित्र रखना ही होगा। प्रार्थना तभी फलित होगी, जब हमारा मन राग-द्वेष से मुक्त हो जाए।
प्रार्थना का एक अर्थ होता है, परम की कामना। परम की कामना के लिए क्षुद्र और तुच्छ कामनाओं का परित्याग करना चाहिए। परम की चाह ही प्रार्थना है लेकिन हम परम की नहीं, अल्प की मांग करते हैं। सांसारिक मान, पद व प्रतिष्ठा की चाह प्रार्थना नहीं, वासना है।
धन,यश व पुत्र: इन तीनों की मूलकामना का नाम ‘ऐषणा’ है। इसे ही ऋषियों ने वित्तैषणा, लोकैषणा वपुत्रैषणा कहा है। जब तक इन क्षणिक सुख देने वाली तृष्णाओं का अंत नहीं हो जाता, तब तक परम- प्रार्थना का आरंभ नहीं हो सकता है।
हमारे अंतस की पवित्रता ही हमें प्रार्थना के योग्य बनाती है। इसके लिए हम स्वार्थ हेतु ईश्वर से कुछ मांगना छोड़कर दाता बनें। देने वाले को ही देवता कहा जाता है। गरीबों, वंचितों और जरूरतमंदों को उनकी शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मदद करके हम दाता की श्रेणी में आ जाते हैं।